अंदर है अँधियारा, दिया दिखा दे कोई,
सहमा है संसार ढांढस बन्धा दे कोई।
सायद फिर अँधियारा भी मुझको न खाएगा
जब कुछ भी अलग होने का भेद मिट जाएगा।
क्या भला अंधियारे से और साधन है सरे भेद मिटने को
और सब तो क्या, निज को भी राह से हटाने को।
जब भाव-तिमिर घोर भीतर छाएगा
तब ही तो सायद अंधकार मिट पायेगा।
वहां प्रकाश अतप्त, निरन्तर, निर्विकार होगा
जहाँ सहज भाव से निज का विस्तार होगा।